Gujarat Board GSEB Hindi Textbook Std 11 Solutions Rachana निबंध-लेखन Questions and Answers, Notes Pdf.
GSEB Std 11 Hindi Rachana निबंध-लेखन
निम्नलिखित प्रत्येक विषय पर लगभग 200 शब्दों में निबंध लिखिए:
1. मेरे सपनों का भारत
[भारत की वर्तमान स्थिति – मेरे सपनों का भारत कैसा होगा? -कृषि और उद्योग – शिक्षा – संरक्षण – राष्ट्रीय एकता और सदभाव – स्वप्न साकार होने की आशा।]
स्वतंत्रता पाने के बाद कृषि, उद्योग, व्यापार, विज्ञान, शिक्षा, संरक्षण आदि क्षेत्रों में भारत ने प्रगति के दर्शन कराए हैं। विश्व के विकासशील देशों में भारत का अग्रस्थान है। इसके बावजूद हमारा देश अपनी मूल समस्याओं से मुक्ति नहीं पा सका है। जब मैं अपने देश की वर्तमान तस्वीर देखता हूँ तो लगता है कि यह तो मेरे सपनों का भारत नहीं है।
मेरे सपनों का भारत तो वह भारत है जिसमें गांधीजी के रामराज्य का आदर्श होगा। वह ऐसा भारत है जिसके लिए हमारे देश के शहीदों ने अपने अनमोल प्राणों की बलि चढ़ा दी थी। मेरे सपनों के भारत में ‘स्वराज्य’ ही नहीं, बल्कि “सराज्य’ भी होगा।
मेरी कल्पना का भारत सब तरह से एक फलता-फूलता देशा होगा। गाँवों में किसान अपनी भूमि के मालिक होंगे। उनके खेतों में हरियाली और उनके जीवन में खुशहाली होगी। शहरों में उद्योगधंधे फलते-फूलते होंगे। मिलों-कारखानों में प्रसन्नता से काम करते हुए मजदूर देश को समृद्ध बनाने में जुटे होंगे। देश में न किसी के सामने बेकारौ का प्रश्न होगा और न भूख किसी की मृत्यु का कारण बनेगी। सबके तन पर कपड़ा होगा और सबके दिल में खुशी होगी।
मेरे सपनों के भारत में छोटे से छोटे गाँव में भी प्राथमिक पाठशाला होगी। बड़े गाँवों में विद्यालय और कस्बों में महाविद्यालय ज्ञान-विज्ञान का प्रकाश फैलाते होंगे। जगह-जगह पुस्तकालयों और वाचनालयों की स्थापना होगी। उच्च शिक्षा के द्वार सबके लिए खुले होंगे। शिक्षा में औद्योगिक और तांत्रिकी विषयों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाएगा। हमारे विद्यालय सरस्वती के सच्चे मंदिर होंगे।
मेरे सपनों के भारत में रोगों को लोगों के जीवन पर हावी नहीं होने दिया जाएगा। शहरी और देहाती इलाकों में चिकित्सा की उत्तम सुविधाएं उपलब्ध रहेंगी। गाँव-गाँव दवाखाने होंगे। गाँव का डॉक्टर किसी ग्रामवासी को बेमौत नहीं मरने देगा।
हमारे देश की संरक्षण-व्यवस्था लाजवाब होगी। हमारी सेनाएं शत्रुओं को हमारी सीमाओं पर बुरी नजर डालने नहीं देंगी। देश में कानून का सख्ती से पालन होगा। चोरों, डाकुओं, तस्करों और काला बाजार करनेवालों को अपनी काली कमाई के दरवाजे बंद कर देने पड़ेंगे। भ्रष्टाचारियों और देशद्रोहियों को कड़ी सजाएं देकर उन्हें उनके कर्मों का फल चखाया जाएगा।
मेरे सपनों के भारत में सभी देशवासी एकता के सूत्र में बंधे होंगे। उनमें प्रांतवाद, भाषावाद तथा धार्मिक संकीर्णता का विष न होगा। सब खुले दिल से राष्ट्र को सुखी, समृद्ध और शक्तिशाली बनाने में लगे होंगे। समाज में ऊँच-नीच, जाति-पाति आदि की दरारें न होंगी। दहेज जैसी कुप्रथाओं का कहीं स्थान न होगा।
इस प्रकार मेरे सपनों का भारत एक महान और आदर्श देश होगा। सारा विश्व उससे प्रेरणा लेगा। काश! मैं अपने सपनों के भारत को अपनी आँखों देख सकूँ!
2. भारत की एक विकट समस्या-जनसंख्या
[सारी समस्याओं की जड़- जनसंख्या वृद्धि के परिणाम – कारण -नियंत्रण जरूरी- संदेश ।]
भारत को ‘स्वराज्य’ मिले तो आधी सदी बीत गई, पर ‘सुराज’ अब तक नहीं मिला। नौ पंचवर्षीय योजनाएं अमल में आ गईं, पर देश की गिनती आज भी दुनिया के पिछड़े हुए देशों में ही होती है। इसका सबसे बड़ा कारण है – देश की लगातार बढ़ती हुई जनसंख्या। जनसंख्या में हो रही यह वृद्धि ही देश की सारी समस्याओं की जड़ है।
जनसंख्या की वृद्धि ने देश के विकास को पंगु बना रखा है। विज्ञान के विकास से जो लाभ मिले, वे आबादी की बाढ़ में बह गए। स्वतंत्रता के बाद देश में बड़ी-बड़ी नदियों पर विशाल बाँध बनें। सिंचाई की सुविधा से देश में हरित क्रांति हुई। अनाज का उत्पादन बढ़ा। फिर भी यहाँ सबको भरपेट अन्न नहीं मिल पाता! हमारे बाजार कंपड़ों से भरे पड़े हैं, पर सबको शरीर ढंकने के लिए कपड़ा नहीं मिलता।
शहरों में मकानों की अपेक्षा झोंपड़ियाँ ही अधिक हो गई हैं। सड़कों पर चलने के लिए जगह नहीं मिलती। रेलगाड़ियों और बसों में लोग लटककर यात्रा करते हैं और दुर्घटनाओं के शिकार होते हैं। जंगल नष्ट हो रहे हैं। गर्मियों में पेय जल का भीषण संकट खड़ा हो जाता है। चोरी, गुंडागर्दी, तस्करी आदि असामाजिक प्रवृत्तियों का एक प्रमुख कारण जनसंख्या की बेहद वृद्धि ही है।
हमारे देश में जनसंख्या के विस्फोट के कई कारण हैं। विज्ञान ने यदि हमें विनाश के साधन दिए हैं, तो जीवनरक्षक औषधियाँ भी दी हैं। महामारियों और संक्रामक रोगों का अब पहले जैसा प्रकोप नहीं रहा है। अधिकांश रोगों पर पूरी तरह नियंत्रण पा लिया गया है। जीवन – की सुविधाएं भी बढ़ी है और स्वास्थ्य तथा वातावरण के प्रति लोगों में जागरूकता भी आई है। आयुसीमा बढ़ने तथा मृत्युदर में कमी आने से भी आबादी की वृद्धि होती है।
जनसंख्या पर नियंत्रण करना आज के समय की सबसे बड़ी मांग है। ऐसे तो मालथूजियन थियरी के अनुसार प्रकृति स्वयं जनसंख्या का संतुलन करती है। युद्ध, दंगे, बीमारियाँ, बाढ़, भूकंप आदि के द्वारा वह बढ़ी हुई आबादी को कम कर देती है। फिर भी हम देशवासियों का कर्तव्य है कि हम जनसंख्या को बेकाबू न होने दें।
उसके लिए परिवारनियोजन के आदर्श को अपनाएं। हम शादियाँ निर्धारित उम्र या उसके पश्चात् ही कराएँ। देश में सुख, शांति और प्रगति के लिए जनसंख्या का सीमित रहना जरूरी है। पश्चिमी देशों की प्रगति का रहस्य वहाँ जनसंख्या का कम होना है। उत्पादन और जनसंख्या में सुसंगति रखकर ही हम बुद्धिमान और दूरदर्शी होने का दावा कर सकते हैं।
3. बल ही सबका बल
[पृथ्वी में जल-दुष्प्राप्ति के कारण -परिणाम -प्राप्ति के बाद संग्रह की व्यवस्था – जल ही जीवन -जल के बचाव में समुचित उपयोग -मानव -पशु-पक्षी -वृक्ष – पानी के लिए पर्यावरण सुरक्षा।
जल के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसीलिए दयालु प्रकृति ने हम पृथ्वी वासियों को जल के अनेक स्रोत दिए हैं। कुएं, तालाब, नदियाँ, झीलें, झरने, प्रपात आदि जल के सर्वसुलभ स्रोत हैं। इसमें संदेह नहीं कि जल का सबसे बड़ा स्रोत वर्षा है। अन्य सारे स्रोत वर्षा के पानी पर ही निर्भर हैं।
जब वर्षा नहीं होती तो जल के स्रोत सूखने लगते हैं। तालाब सूख जाते हैं। कुओं में पानी का स्तर घट जाता है। नदियाँ भी सूख जाती हैं। लगातार अकाल पड़ने पर पानी के लिए हाहाकार मच जाता है।
जल की दुष्प्राप्ति जीवन की सहज व्यवस्था को झकझोर देती है। वर्षा के बिना खरीफ की फसल नहीं हो पाती। सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध न होने से रवी की फसल भी नहीं हो पाती। फल तथा शाकभाजी की पैदावार भी बहुत घट जाती है, अनाज, फल तथा भाजियों के दाम बढ़ जाते हैं। पेय जल भी बड़ी कठिनाई से मिल पाता है। सरकार टेंकरों द्वारा गाँवों तथा शहरों में जल पूर्ति करती है। जल की कमी से जीवन त्राहि-त्राहि करने लगता है। घास-चारे के अभाव में पशु मर जाते हैं। दूध का दाम भी आसमान छूने लगता है।
अनावृष्टि से जल की तंगी की बात तो समझ में आती है, परंतु कभी-कभी तो पर्याप्त वर्षा होने पर जल का अभाव देखा जाता है! इसका कारण है – वर्षा से प्राप्त जल का ठीक से संचय न करना। हमारे यहाँ नदियों पर बाँधों की कमी है। बड़े और गहरे तालाब भी कम हैं। पानी की बरबादी भी जलाभाव उत्पन्न करती है। यदि प्रकृति द्वारा दिए गए जल का उचित संग्रह किया जाए तो प्रतिवर्ष अनुभव किए जानेवाले जलसंकट को बहुत हद तक टाला जा सकता है।
एक बात तो स्पष्ट है कि जल ही जीवन है। जल के बिना न प्यास बुझ सकती है, न खाना बन सकता है, न स्नान और सफाई हो सकती है और न अन्न का उत्पादन हो सकता है। जल न हो तो विद्युत का उत्पादन भी नहीं हो सकता अर्थात् उद्योग-धंधे भी नहीं चल सकते। इसीलिए जल को ‘जीवन’ कहा गया है।
आज पर्यावरण की सुरक्षा पर बहुत जोर दिया जा रहा है। पर्यावरण स्वच्छ होना चाहिए। वह हराभरा और सुंदर होना चाहिए। क्या जल के बिना यह संभव है? “शेर और हाथी बलवान पशु माने जाते हैं। मनुष्य भी अपने को : कम शक्तिशाली नहीं मानता! क्या जल के बिना इनका बल कायम : रह सकता है? जल से ही सबको शक्ति और साहस मिलता है। अत: जल ही सबका बल है। हमें इस जल का समझदारी से सदुपयोग – करना चाहिए।
4. पुरुषार्थ ही प्रारब्ध है
[प्रारंभ-अर्थ – महत्त्व -पुरुषार्थरहित जीवन – पुरुषार्थ और भाग्य – उदाहरण – उपसंहार।]
पुरुषार्थ की महिमा को कौन नहीं जानता? वनों में पशुओं के : समान बर्बर जीवन बितानेवाला मनुष्य आज सभ्यता और संस्कृति के : शिखर पर बैठकर पुरुषार्थ की ही बंशी बजा रहा है।
पुरुषार्थ का अर्थ है बुद्धि द्वारा संचालित परिश्रम अथवा – उद्योगशीलता। पुरुषार्थी व्यक्ति बुद्धिमान, साहसी, आलस्यरहित और : कर्तव्यपरायण होता है। वह ऐसा कर्मयोगी होता है जिसमें सूझ-बूझ की कमी नहीं होती।
‘प्रगति और विकास के इतिहास की रचना पुरुषार्थ द्वारा होती – है। इस संपूर्ण जगत में पुरुषार्थ का ही बोलबाला है। बिना पुरुषार्थ के कोई कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। सिंह को भी अपने आहार के लिए शिकार करना पड़ता है। हिरन अपने आप उसके मुंह में नहीं पहुंच जाता। पुरुषार्थ के पेड़ पर ही सफलता के फूल खिलते हैं।
पुरुषार्थरहित जीवन भी कोई जीवन है! कहते हैं कि जिंदगी जिंदादिली का नाम है। जिसमें पुरुषार्थ का तेज नहीं, वह जिंदादिल कैसे हो सकता है। ऐसे आलसी, निष्क्रिय और काहिल व्यक्ति का न परिवार में कोई भाव पूछता है, न समाज में उसे कोई स्थान मिलता है। कोई भी कला और विद्या उसके पास नहीं फरक सकती। वह धरती पर भार समान है।
पुरुषार्थ और भाग्य में कौन बड़ा है? पुरुषार्थवादी मानते हैं कि मनुष्य को सुख, संपत्ति और सत्ता पुरुषार्थ के बल पर ही प्राप्त होती हैं। उनका कहना है कि मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। परिश्रमी व्यक्ति के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। महान पुरुषार्थवादी नेपोलियन कहता था ‘असंभव’ शब्द उसके ‘शब्दकोश’ में ही नहीं है। इसके विपरीत भाग्यवादी मानते हैं कि मनुष्य की सफलता-असफलता सभी भाग्य के अधीन है। भाग्य ही विजयश्री दिलाता है और वही पराजय का कारण भी बनता है। यदि किसी के भाग्य में समृद्धि का योग हो तो वह उसे बिना प्रयत्न के भी मिल सकती है।
संसार में भाग्य और पुरुषार्थ दोनों के उदाहरण मिलते हैं। लॉटरी लग जाने पर लाखों रुपये मिलना भाग्य का फल है। उत्तराधिकार में विपुल संपत्ति की प्राप्ति भी भाग्य के बल को ही प्रभावित करती है। ऐसे उदाहरणों के बावजूद विश्व का इतिहास मानव के प्रबल पुरुषार्थ का इतिहास है। विज्ञान के अद्भुत आविष्कार मानवीय पुरुषार्थ के ही जीते-जागते चमत्कार है। राम, कृष्ण, गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, महात्मा _ गांधी आदि नामों की महिमा के पीछे उनके पुरुषार्थ की ही जगमगाहट है।
इसमें संदेह नहीं कि पुरुषार्थ में ही जीवन का गौरव है। पुरुषार्थ वह पारसमणि है जिसके स्पर्श से सामान्य व्यक्ति का जीवन भी स्वर्ण के समान बहुमूल्य बन जाता है।
5. गाय – भारतीय संस्कृति का प्रतीक
[प्रस्तावना -गाय के प्रति लोकभावना – गोदुग्ध की महिमा – धन-सम्पत्ति के रूप में गाय -कृषि-कार्य में गाय का महत्त्व – गाय की उपेक्षा उचित नहीं।]
बाघ भारत का राष्ट्रीय पशु है, परन्तु गाय भारतीय संस्कृति से जुड़ी हुई है। प्राचीन काल से ही भारतीय जीवन में गाय की महत्ता सर्वस्वीकृत हो गई है। वृक्षों में जो महिमा कल्पवृक्ष की है, गायों में वही कामधेनु की है।
भारतवासी गाय को माता के समान पूज्य मानते हैं। प्रत्येक भारतीय किसान चाहता है कि उसके घर गाय अवश्य रहे। गाय को घास खिलाना पुण्य-कार्य माना जाता है। एक समय था जब रसोई की पहली रोटी गो-ग्रास के रूप में माय को अर्पित की जाती थी। सौभाग्यवती महिलाएं गो-पूजा करके अपने परिवार की कल्याण-कामना करती थी। दरवाजे पर बंधी गाय आर्य सभ्यता की पहचान बन गई थी।
गाय न हो तो घर-परिवार सूना लगता था। गाय के दूध को माता के दूध के समान ही महत्त्व दिया जाता है। वह जितना पौष्टिक होता है, पचने में उतना ही हल्का होता है। उसमें शरीर को पोषण देनेवाले सभी तत्त्व होते हैं। बच्चों के लिए तो वह अमृततुल्य ही है। गोपाल श्रीकृष्ण गाय का ही दूध पीते थे और उसी का मक्खन खाते थे।
प्राचीन काल में गाय को सम्पत्ति माना जाता था। गो-धन की बड़ी महिमा थी। ऋषियों के आश्रम में हजारों गायें रहती थीं। गुरुकुल की शिक्षा में विद्यार्थियों को गो-सेवा भी करनी पड़ती थी। वे गायों को जंगल में चराने ले जाते थे। राजा भी ऋषियों को गायों का दान करते थे। कन्या के विवाह में स्वर्णजड़ित सींगोंवाली गायें दहेज के रूप में दी जाती थीं।
भारत कृषि-प्रधान देश है। खेत जोतने के लिए यहाँ हजारों वर्षों से बैलों का ही उपयोग किया जाता था। बैलगाड़ी तो आज भी गावों का सस्ता और सुलभ साधन है। इस तरह गो-वंश सदा ही भारतीय जीवन का अभिन्न अंग रहा है।
आज हमारी संस्कृति का स्वरूप बाहर से भले ही बदल गया हो; पर भीतर से वह लगभग पूर्ववत् ही है। गाय के प्रति हमारी आस्था आज भी बनी हुई है; परन्तु केवल आस्था ही पर्याप्त नहीं होती। गाय के प्रति जो जागरूकता और जिम्मेदारी होनी चाहिए, वह हम में दिखाई नहीं देती। भारत जैसे गोपालक देश में गाय की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।
6. यदि मैं शिक्षामंत्री होता
[शिक्षामंत्री बनना एक सौभाग्य – सस्ती और उपयोगी शिक्षा – उचित माध्यम – पाठ्यपुस्तक एवं परीक्षा-प्रणाली में सुधार -अन्य सुधार – मेरा आदर्श।]
मनुष्य के जीवन में शिक्षा का बहुत महत्त्व है। अच्छी शिक्षाप्रणाली पर ही समाज और राष्ट्र की उन्नति का आधार है। शिक्षा विभाग की सारी जिम्मेदारी शिक्षामंत्री पर होती है। इसलिए यदि मैं शिक्षामंत्री होता तो स्वयं को, सचमुच, बड़ा भाग्यशाली मानता, क्योंकि इससे मुझे देशसेवा का एक महान अवसर प्राप्त होता।
यदि मैं शिक्षामंत्री होता तो मेरा सबसे पहला कार्य होता – आज की शिक्षा को अधिक से अधिक उपयोगी और कम से कम खर्चीली बनाना। आजकल एम.ए. और एम.एससी. जैसी डिग्रियाँ प्राप्त करने के बाद भी विद्यार्थियों को नौकरी के लिए मारा-मारा फिरना पड़ता है या बेकार बैठे रहना पड़ता है! कभी-कभी उन्हें अपनी आजीविका के लिए ऐसे काम भी करने पड़ते हैं, जिनसे उनकी शिक्षा का कोई संबंध नहीं होता।
परिणामस्वरूप उनका ज्ञान धीरे-धीरे मिट्टी में मिल जाता है और वर्षों की तपस्या पर पानी फिर जाता है। मैं ऐसा कभी न होने देता। मैं टेक्निकल, संगणक शिक्षण और औद्योगिक शिक्षा पर अधिक ध्यान देता। हस्तकला, चित्रकला, संगीत, फोटोग्राफी तथा बागवानी को भी मैं शिक्षा में उचित स्थान देता। गरीब प्रतिभाशाली छात्रों के लिए मैं छात्रवृत्तियों की व्यवस्था करता। मैं शिक्षा को सभी के लिए सुलभ बनाने का आयोजन करता।।
मैं शिक्षा के माध्यम के लिए मातृभाषा को ही उपयुक्त समझता है। अतः यदि मैं शिक्षामंत्री होता तो सभी पाठ्यपुस्तकें मातृभाषा में ही तैयार करवाता। मैं विद्वानों द्वारा विज्ञान, चिकित्सा-विज्ञान तथा इंजीनियरिंग आदि की पुस्तकें मातृभाषा में लिखवाता अथवा दूसरी भाषाओं की पुस्तकों के सरल, सुबोध अनुवाद कराकर उन्हें प्रकाशित करवाता।
मातृभाषा के साथ ही मैं राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को तथा आंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में अंग्रेजी को उचित स्थान देता। मैं पाठ्यपुस्तकों में ऐसे विषय रखवाता, जो ज्ञानप्रद, रोचक और राष्ट्रीय भावनाओं का विकास करनेवाले हों, जिनके अध्ययन से विद्यार्थी भारतीय संस्कृति को ठीक तरह से समझ सकें। पुस्तकों का मूल्य कम से कम रखता, जिससे गरीब से गरीब विद्यार्थी भी उन्हें आसानी से खरीद सकें। विद्यार्थी को परीक्षा में सफलता का प्रमाणपत्र उसकी वार्षिक प्रगति, स्वास्थ्य, चरित्र तथा सामान्य ज्ञान के आधार पर दिया जाता।
मैं स्कूलों की तरह कॉलेजों में भी गणवेश पहनना अनिवार्य कर देता। इससे न केवल समता पैदा होती, किंतु आज की-सी फैशनपरस्ती पर भी अंकुश रहता। लड़कियों के पाठ्यक्रम में गृहविज्ञान, शिशुपालन तथा अन्य स्त्रियोपयोगी विषयों को भी महत्त्व देता। स्कूलों में प्रवेश के लिए ‘डिपॉज़िट’ या ‘डोनेशन’ लेने की प्रथा को सख्ती से बंद करवाता।
इस प्रकार शिक्षामंत्री बनने पर मैं वर्तमान शिक्षा-प्रणाली को ऐसे रूप में ढालता, जिससे देश को अच्छे नागरिक, अच्छे अध्यापक, अच्छे नेता, कुशल डॉक्टर, चतुर गृहिणियाँ और सच्चे सपूत मिल सकें। क्या मैं अपने जीवन में इन अभिलाषाओं को मूर्त रूप दे पाऊँगा?
7. देश के प्रति युवकों का कर्तव्य
[प्रस्तावना – युवक ही देश के रक्षक -देश की प्रगति के आधार -राष्ट्र-निर्माण के अन्य कार्य – उपसंहार।]
युवक देश के प्राण होते हैं। देश को अपने युवकों से बड़ी-बड़ी आशाएं होती हैं। इसलिए युवकों को देश के प्रति अपने कर्तव्यों का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। मातृभूमि की रक्षा की जिम्मेदारी युवकों पर होती है। इसलिए युवकों का कर्तव्य है कि वे अपनी रुचि के अनुसार जल, स्थल या वायुसेना में भर्ती हों। वे युद्ध-कौशल में निपुण बनें।
स्वतंत्रता की लड़ाई में अनेक युवकों ने अपना बलिदान दिया था। भगतसिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ आदि शहीदों ने अपने साहस और देशप्रेम से भारतवासियों में आजादी की दीवानगी भर दी थी। अब देश के स्वाभिमान और गौरव की रक्षा के लिए भी युवकों को ही आगे आना होगा।
देश की प्रगति युवकों पर निर्भर है। विज्ञान, कला, शिक्षा आदि क्षेत्रों में युवकों को ही देश की आवश्यकताएं पूरी करनी पड़ेंगी। आज हमारे देश में खाद्यान्न की कमी है। देश के अनेक भागों में पेय जल की समस्या है। सड़कों की जरूरत है। विद्युत उत्पादन बढ़ाना है। इन सबके लिए आधुनिक टेक्नोलॉजी का ज्ञान आवश्यक है। यह जान पाकर हमारे युवक इस पिछड़े हुए देश को विकास की नई दिशाएँ दिखा सकते हैं। कृषि, उद्योग, व्यापार में आधुनिक तौर-तरीके अपनाकर वे देश में प्रगति का नया उजाला ला सकते हैं।
आज के जीवन में राजनीति बहुत महत्त्वपूर्ण बन गई है। देश के युवकों को राजनीति में भाग लेकर उसे साफ-सुथरा रूप देना चाहिए। आज हमारे यहाँ राजनीति और आर्थिक क्षेत्र में बहुत भ्रष्टाचार फैला हुआ है। प्रशासन में भ्रष्ट तत्त्व घुस गए हैं। चुनावों में भी धांधली होती है। देश से ये सारे अनिष्ट युवक ही दूर कर सकते हैं। शासन को कल्याणकारी रूप देना युवकों के ही बस की बात है।
समाज भी अपनी समस्याओं के हल के लिए युवकों का ही मुंह ताकता है। आज जरूरत है ऐसे प्रबुद्ध युवाओं की जो समाज को संकीर्णताओं से मुक्त करके उसे विशाल और व्यावहारिक दृष्टि दें। वे जातिप्रथा को समाप्त करें। समाज में ऊँच-नीच का भेदभाव दूर करें। वे बिना दहेज लिए विवाह करने का व्रत लें और इस प्रकार देश को दहेज के दानव से मुक्त करें। वे सिनेमा और दूरदर्शन के माध्यम से समाज को नई दृष्टि दें। वे देहातों में शिविरों का आयोजन करें और उनके द्वारा सामाजिक समस्याओं का निराकरण करें।
इस प्रकार युवक चाहें तो अनेक तरह से देश की सेवा कर सकते हैं। वे जुआ, शराब, चोरी, बेईमानी से बचें और अपनी शक्तियों का देश के उत्कर्ष में सदुपयोग करें। वे राम, कृष्ण, अर्जुन के समान वीर बनकर देश के दुष्ट तत्त्वों का नाश करें। वे बुद्ध और महावीर के समान देश को सन्मार्ग पर ले चलें और गांधी के समान आत्मशक्ति से संपन्न बनें। वे अच्छे नेता, सेनापति, शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर और कलाकार बनकर देश के विकास में अपना योगदान करें।
8. प्रदषण-एक विकट समस्या
[चारों ओर प्रदूषण ही प्रदूषण – प्रदूषण के प्रकार – प्रदूषण के कारण – प्रदूषण के दुष्परिणाम – प्रदूषण कम करने के उपाय – संदेश।]
आज हम प्रदूषण की दुनिया में जी रहे हैं। जल, स्थल और आकाश पर प्रदूषण के दैत्य ने अपना अधिकार जमा लिया है। सर्वत्र प्रदूषण के कारण हमारा जीवन एक भयावह चक्रव्यूह में फंसकर रह गया है।
प्रदूषण बहुमुखी दैत्य है। वह वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण और ध्वनि-प्रदूषण के रूप में अपनी जीभें लपलपा रहा है। हम दूषित वायुमंडल में सांस ले रहे हैं। पीने के लिए लोगों को स्वच्छ, निर्मल जल नहीं मिल रहा है। दूषित जल और जंतुनाशक दवाओं के कारण अनाज की फसलें भी दूषित हो रही हैं। आधुनिक यंत्रों का शोर हमारे कानों के परदे फाड़ रहा है। प्रदूषण के इन विविध रूपों ने इस सुंदर सृष्टि के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है।
प्रदूषण की इस विकट समस्या के मूल में औद्योगिक क्रांति और बढ़ती हुई आबादी है। मिलों, कारखानों और वाहनों से निकलनेवाला धुओं वातावरण को विषैला बना रहा है। गैस प्लांटों से गैस रिसने की दुर्घटनाएँ पर्यावरण को खौफनाक बना रही हैं। औद्योगिक संस्थानों से निकलनेवाला रासायनिक कूड़ा-कचरा तथा शहर की गटरों का पानी नदियों, झीलों तथा समुद्रों के पानी में विष घोल रहा है।
रेलगाड़ियों, विमानों, मोटरों के हान; रेडियो, दूरदर्शन तथा लाउड स्पीकरों से निकलनेवाली ध्वनियाँ ध्वनि-प्रदूषण को बढ़ा रही हैं। खेल-कॉमेंट्रियाँ, पटाखे तथा बम-विस्फोट भी ध्वनि-प्रदूषण की वृद्धि में सहयोग दे रहे हैं। शहरों की गंदी झोपड़पट्टियाँ, मशीनीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति और वनों तथा वृक्षों का बेतहाशा विनाश प्रदूषण के मुख्य कारण हैं।
हर तरह का प्रदूषण जीवन का शत्रु है। वायु प्रदूषण के कारण वायुमंडल में कार्बन डायऑक्साइड की मात्रा बढ़ती जा रही है। इससे पृथ्वी के पर्यावरण के ऊपर रहनेवाला ओझोन गॅस का सुरक्षा चक्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। पृथ्वी पर के तापमान के अनियमित होने से ऋतुओं का परिवर्तन-चक्र भी गड़बड़ा रहा है। वायु तथा जल के प्रदूषण से तरह-तरह के घातक रोग फैल रहे हैं। खेती की पैदावार नष्ट हो रही है। धरती का उपजाऊपन घट रहा है। ध्वनि-प्रदूषण के कारण मानव बहरेपन, अनिद्रा, रक्तचाप तथा मानसिक रोगों का शिकार बन रहा है।
प्रदूषण से पूरी तरह मुक्त होना संभव नहीं है, पर उसे कम ( अवश्य किया जा सकता है। इसके लिए लोगों में जागरूकता पैदा करनी होगी। वनों के विनाश को रोकना होगा और वृक्षारोपण की प्रवृत्ति में तेजी लानी होगी। यदि हम समझदारी से काम लें, जनसंख्या ३ का वृद्धि-दर कम कर सकें और यंत्रों के उपयोग पर अंकुश रखे तो प्रदूषण की समस्या से बहुत हद तक निपट सकते हैं। यदि मानवजाति सुख-शांति से जीना चाहती है, तो उसे प्रदूषण के विषधरों को पिटारी में बंद करना ही होगा।
9. एक फटी पुस्तक की आत्मकथा
(परिचय – जन्म – जीवनयात्रा – कुछ अनुभव – अंतिम अभिलाषा।]
बहुत दिनों से मेरी इच्छा थी कि मैं किसी के आगे अपना दिल खोलू। अच्छा हुआ, मैं आप जैसे सहृदय मनुष्य के हाथों में आई और मुझे अपने मन की दो बातें कहने का मौका मिला।
मेरे जन्म की कथा बड़ी दिलचस्प है। सबसे पहले एक लेखक ने बड़े परिश्रम से मुझे लिखा। इसके बाद मुझे एक बड़े प्रेस में भेजा गया। मशीनों की खट्खट् ने मेरे कान बहरे कर दिए। न जाने कितने अक्षरों को जोड़-जोड़कर मुझे नया रूप दिया गया। इसके बाद मुझे मशीनों के नीचे कुचला गया। उस समय की पीड़ा याद आते ही आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। फिर तो मेरी देह में सुइयां लगाई गई और मरहम-सी चीज से मुझ पर मालिश की गई। इसके बाद मेरे रूप का कहना ही क्या! फिर एक दुकान की अलमारी में शोभित हुई।
आखिर, एक दिन मैंने उस दुकान से बिदा ली। मेरे मालिक ने मुझे बड़े यत्न से रखा । वह मुझे बड़े ध्यान से पढ़ता और हर पन्ने पर कछ निशान करता जाता था। कछ दिन उसके यहाँ रहने पर मैं उसके एक मित्र के पास चली गई। उसने तो मुझे अपना ही बना लिया। उसने अपनी पेन्सिल से उन स्थानों पर निशान लगा दिए, जो उसे बहुत पसंद आए। मैंने भी सोचा, चलो कोई कदरदान तो मिला।’
पर दुर्भाग्य से एक दिन वह मुझे बस में भूल गया। तब से मेरी दुर्दशा का आरंभ हुआ। मैं एक बुद्धू के पल्ले पड़ी। उसने मेरे दो-चार पन्ने पढे, पर जब कुछ मजा न आया तो उसने मझे एक ओर पटक दिया। पर उसकी पत्नी शायद अधिक पढ़ी-लिखी और समझदार थी। कुछ पंक्तियों को पढ़ते ही उसने मुझे अपने दिल से लगा लिया। लेकिन अब दुर्भाग्य मेरे पीछे पड़ गया था। एक दिन मैं एक रद्दीवाले के यहाँ पहुंच गई। उसने मेरा सुंदर मुखपृष्ठ फाड़कर अलग कर दिया। हाय। कैसा निर्दय था वह! पर मेरी किस्मत जोरदार थी। आपने मुझे उस नरक से उबारकर मुझ पर बड़ा उपकार किया है।
दुनिया में रहकर मैंने सूखे और पत्थर जैसे कठोर दिल देखे हैं और उन लोगों का प्यार भी पाया है, जो फूलों की सुंदरता और चाँद की मधुरता को अपने दिल में बसाए रहते हैं। कहीं मुझे शीतल छाया के आनंद का अनुभव हुआ है, तो कहीं धूप की जलन का। आज मैं बहुत खुशनसीब हूँ, आपके पास आकर ।
मैंने अपनी शक्ति के अनुसार मनुष्य की सेवा की, उसे आनंद और ज्ञान दिया है। आगे भी ऐसी ही सेवा करती रहेंगी। पर अब मेरी हड़ियाँ ढीली हो गई हैं। मेरे पन्ने-पन्ने पर स्याही के दाग, पेन्सिल की लकीरें और व्यक्तियों के नाम हैं। फिर भी यदि मेरे इस जीवन से आपका कुछ कल्याण हो सका तो मैं अपने आपको धन्य समझूगी।
10. मेरा प्रिय लेखक
[परिचय – साहित्य का रूप – कहानियाँ और उपन्यास – विशेषताएं – अन्य बातें – प्रिय होने का कारण – उपसंहार।]
हिन्दी में अनेक महान लेखक हैं। सबकी अपनी अपनी विशेषताएं हैं। उन्होंने उत्तम कोटि के साहित्य का निर्माण कर सारे संसार में नाम कमाया है, किंतु इन सबमें मुझे सबसे अधिक प्रिय हैं हिन्दी कथासाहित्य के अमर सम्राट मुंशी प्रेमचंदजी ।
प्रेमचंदजी लोकजीवन के कथाकार हैं। किसानों, हरिजनों और दलितों के जीवन पर उन्होंने अपनी कलम चलाई। किसानों के दुःख, उनके जीवन-संघर्ष, उन पर जमीनदारों द्वारा होनेवाले जुल्म आदि को उन्होंने स्वाभाविक ढंग से पढ़े-लिखे समाज के सामने रखा। इसके साथ ही उन्होंने भारतीय किसानों के अंधविश्वास, अशिक्षा, करुणा, प्रेम और सहानुभूति के भी वास्तविक चित्र प्रस्तुत किए। इस प्रकार प्रेमचंदजी का साहित्य भारत के ग्रामीण जीवन का दर्पण है।
प्रेमचंदजी की कहानियाँ बहुत सरल, सरस और मार्मिक होती हैं। ‘कफन’, ‘बोध’, ‘ईदगाह’, ‘सुजान भगत’, ‘नमक का दारोगा’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘दूध का दाम’, ‘पूस की रात’ आदि अनेक कहानियों में प्रेमचंदजी की स्वाभाविक और रोचक शैली के दर्शन होते हैं। उनके उपन्यास भी बेजोड़ हैं। ‘गोदान’ तो किसानों के जीवन का महाकाव्य ही है। ‘गबन’ में मध्यम वर्ग के समाज का मार्मिक चित्र अंकित हुआ है। ‘रंगभूमि’, ‘सेवासदन’, ‘निर्मला’ आदि उपन्यासों ने प्रेमचंदजी और उनकी कला को अमर बना दिया है। सचमुच, प्रेमचंदजी के साहित्य को पढ़ने से सदगुणों और अच्छे संस्कारों का विकास होता है।
प्रेमचंदजी का चरित्र-चित्रण अनूठा है। कथोपकथन भी बहुत स्वाभाविक और सुंदर हैं। चलती-फिरती मुहावरेदार भाषा उनकी सबसे विशेषता है। गांधीजी के विचारों का प्रेमचंदजी पर बड़ा भारी असर पड़ा है। सत्याग्रह और असहयोग आंदोलन ने उनकी रचनाओं को काफी प्रभावित किया है।
प्रेमचंदजी के साहित्य में राष्ट्रीय जागरण का महान संदेश है, हमारे सामाजिक जीवन के आदर्शों का निरूपण है। देशप्रेम के आदर्शों की झलक है। गुलामी का विरोध और राष्ट्र को उन्नत बनाने की प्रेरणा है। उनकी कलम जाति-पांति या ऊंच-नीच के भेदभाव तथा प्रांतीयता आदि सामाजिक बुराइयों को दूर करने की सदा कोशिश करती रही। साहित्य-सृजन द्वारा वे हिन्दू-मुस्लिम की एकता के लिए हमेशा प्रयत्न करते रहे। इस प्रकार साहित्यकार के साथ ही साथ वे बहुत बड़े समाज-सुधारक भी थे। स्वतंत्रता-आंदोलन के दिनों में उनकी कलम ने तलवार का काम किया।
लोकजीवन के ऐसे महान कथाकार और सच्चे साहित्यकार प्रेमचंदजी यदि मेरे प्रिय लेखक हों तो इसमें आश्चर्य ही क्या।
11. राष्ट्रीय एकता के उपाय
अथवा
भारत की एकता की समस्या
[भारत में एकता का रूप -आज की स्थिति -एकता का महत्त्व – एकता न होने से हानि – राष्ट्रीय एकता कायम रखने के उपाय – देशवासियों की समझदारी।]
भारत विविधता में एकता प्रकट करनेवाला अनोखा देश है। अलग-अलग धर्मों, भाषाओं, संप्रदायों और जातियों के बावजूद भारत में सांस्कृतिक एकता का कभी अभाव नहीं रहा। भारत की भौगोलिक स्थिति भी इसे एक राष्ट्र बनाए रखने में बड़ी सहायक रही। आज तो भारत में एक लोकतांत्रिक शासनपद्धति है। हमारा एक राष्ट्र-ध्वज, एक राष्ट्र-गीत, एक मुद्रा और एक केंद्रीय सरकार है।
सारा संसार भारत को एक स्वतंत्र और सार्वभौम राष्ट्र मानता है। आज कुछ स्वार्थी तत्व-देश की एकता को तोड़ना चाहते हैं। धर्म, भाषा या क्षेत्रीयता के नाम पर वे देश को बांटने का प्रयत्न कर रहे हैं। इन देशद्रोही लोगों ने बरसों तक कश्मीर में हमारे भाईचारे को हानि पहुंचाई। देश के पूर्वी प्रांतों में ये ही लोग देश के दुश्मन हैं। ये नहीं चाहते कि भारत आगे बढ़े और सुखी तथा समृद्ध देश बने ।
एकता ही राष्ट्र की सबसे बड़ी शक्ति होती है। वह हमारी असली पूंजी है। वह राष्ट्र का प्राण है। एक होकर ही हम देश की योजनाओं को पूरा कर सकते हैं। देश की एकता ही कृषि, उद्योग तथा विज्ञान के क्षेत्र में हमारी प्रगति के द्वार खोल सकती है। हमारी एकता की शक्ति देखकर शत्रु हम पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सकते।
एकता न होने पर भारत एक राष्ट्र होने के गौरव से वंचित हो जाएगा। एकता न होने के कारण हम सदियों तक विदेशियों की पराधीनता में जीते रहे। शकों, मंगोलों, मुगलों, अंग्रेजों, फ्रांसीसियों आदि ने हमारी फूट का पूरा लाभ उठाया। उन्होंने यहाँ अपने राज्य स्थापित किए। फलस्वरूप देश खोखला होता गया। भला हो उन देशभक्त क्रांतिकारियों और नेताओं का, जिन्होंने अनेक कष्ट सहकर तथा कुरबानियाँ देकर इसे स्वतंत्रता दिलाई।
इतिहास के इस सबक को हम कभी नहीं भूल सकते। राष्ट्रीय एकता कायम रखने के लिए हमें छोटे-मोटे झगड़े भूलने होंगे। हमें क्षेत्रवाद की भावना छोड़नी होगी। क्षेत्रीय हितों को राष्ट्रीय हितों पर कुर्बान करना होगा। भाषावाद, संप्रदायवाद और जातिवाद को हमेशा के लिए दफना देना होगा। अखबार, रेडियो, दूरदर्शन, शिक्षा आदि राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने में काफी सहयोग दे सकते हैं।
एकता तो राष्ट्र की रीढ़ है, भारतमाता की शान है। इसलिए हम मिल-जुलकर सहयोगपूर्वक रहें। हममें मतभेद भले हों, पर मनभेद कभी न हों। भारत के सभी राज्य अपने को देशरूपी शरीर का अंग मानें, तो राष्ट्रीय एकता का आदर्श सिद्ध हो सकता है।
वृक्ष ही जीवन है अथवा वृक्ष ही हमारे मित्र हैं
[वृक्ष – मनुष्य के लिए – वृक्षारोपण एक पुण्य कार्य -वृक्षारोपण के लाभ-वैज्ञानिक और भौगोलिक दृष्टि से महत्त्व – उपसंहार।]
वृक्ष सदा से ही मनुष्य के मित्र रहे हैं। वे प्रकृति की उपकारभावना को प्रकट करते हैं। उनसे मनुष्य को बहुत कुछ मिलता है। वे मानव-जीवन के आवश्यक अंग हैं। इसीलिए प्राचीन काल से हमारे यहाँ ‘वृक्षारोपण’ की बड़ी महिमा रही है। देश में वृक्षों की अधिकता, देश के सुख, सौभाग्य और समृद्धि की निशानी है।
वृक्षारोपण को एक पुण्यकार्य माना गया है। एक वृक्ष लगाना और उसका संरक्षण करना उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना किसी संतान को गोद लेना और उसका पालन-पोषण तथा विकास करना । अग्निपुराण में तो कहा गया है कि जो व्यक्ति वृक्ष लगाता है, वह अपने तीस हजार पितरों का उद्धार करता है।
वृक्षारोपण से मनुष्य को अनेक लाभ मिलते हैं। वृक्षों के फलनेफूलने से सूने स्थान भी सुंदर बन जाते हैं। वृक्षों की हरियाली मन को प्रसन्न करती है। उनकी शीतल छाया गर्मी की दोपहर में सुख-शांति देती है। उनके फूल-फल तथा पत्ते-लकड़ी हमारे लिए बहुत उपयोगी होते हैं। वृक्षों से कागज, दियासलाई आदि बनाने की कच्ची सामग्री, गोंद, भांति-भाँति की जड़ी-बूटियाँ और तेलों की प्राप्ति होती है।
वैज्ञानिक और भौगोलिक दृष्टि से भी वृक्षारोपण बहुत महत्त्वपूर्ण है। वृक्षों से वायुमंडल शीतल और शुद्ध बनता है। शुद्ध हवा लोगों को स्वस्थ बनाती है। वृक्षों के आकर्षण से बादल वर्षा करते हैं और अकाल का भय दूर होता है। खेतों के चारों ओर वृक्ष लगाने से वर्षा में उनकी मिट्टी का संरक्षण होता है और अनाज का उत्पादन बढ़ता है। नदी के किनारे वृक्ष लगाने से उसके किनारों का कटाव रुकता है। सड़कों के किनारे वृक्ष लगाने से उनकी शोभा बढ़ती है और पथिकों को छाया मिलती है।
सचमुच, वृक्षारोपण हमारा एक सामाजिक कर्तव्य है। वह जीवन को स्वस्थ, सुंदर और सुखी बनाने की एक योजना है। प्रति वर्ष वनमहोत्सव मनाकर हमें इस योजना में जरूर सहयोग देना चाहिए। यह खुशी की बात है कि आज हम वृक्षारोपण के महत्त्व को समझने लगे हैं। आज शहरों में ‘वृक्ष लगाओ’ सप्ताह मनाए जाते हैं।
नगरपालिकाएँ भी वृक्षारोपण के कार्यक्रम को प्रोत्साहन दे रही हैं। स्व. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जन्मदिवस पर भी वृक्षारोपण करने की परंपरा चल पड़ी है और अधिकाधिक वृक्ष लगानेवाले व्यक्ति या संस्था को ‘वृक्ष-मित्र’ पुरस्कार भी दिया जाता है। इसमें संदेह नहीं कि देश में हरेभरे वृक्ष जितने अधिक होंगे, देश का जीवन भी उतना ही हराभरा होगा। इसलिए हमें वृक्षारोपण की प्रवृत्ति को उत्साहपूर्वक अपनाना चाहिए।